विषैले सर्पों के शीर्ष भाग में विष तन्त्र पाया जाता है जो कि विषहीन सर्पो में नहीं पाया जाता।
विष तन्त्र के निम्नलिखित भाग होते है- (1) एक जोड़ी विष ग्रन्थियां (2) इनकी वाहिनियां (3) विष दन्ते ( fangs) एवं (4) पेशियां है।
1. विष ग्रन्थियां (Poison glands) ऊपरी जबड़े में अन्दर की तरफ दोनों ओर एक-एक विष ग्रन्थि नेत्र के नीचे व पीछे स्थित होती है। ये रूपान्तरित अधर ओष्ठीय (labial) अथवा उपकर्ण (parotid) ग्रन्थियां होती है। समुद्री सर्पों में विष ग्रन्थियां छोटी व अण्डाकार तथा स्थलीय प्रजातियों में बड़ी व नलाकार होती है। प्रत्येक ग्रन्थि पर तन्तुकी संयोजी ऊत्तक का आवरण मढ़ा होता है। इन पर पंखे के आकार की संकुचनशील पेशियां भी स्थित होती हैं जिन्हें टेम्पोरल (temportal) पेशियां कहते हैं। इनके खिंचने से ही विष ग्रन्थियों से विष सर्प दंश के दौरान विष नलिका में निकलता है।
2. विष वाहिनियां (Poison ducts) प्रत्येक विष ग्रन्थि से एक संकरी विष नलिका आगे की ओर निकल कर विष दन्त की खाँच या नाल में प्रवेश करती है।
3. विष दन्त (Fangs) मेक्सिला अस्थि से संलग्न दन्त विष-दन्त कहलाते है। ये लम्बे, वक्र, तीखे व नुकीले होते है। इनका कार्य शिकार की देह में सुई की तरह विष को प्रवेश कराना होता है। नष्ट होने पर ये पुनः प्राप्त किए जा सकते है विषालु सर्पों में इनकी संरचना में भिन्नताएं पाई जाती है वाइपर्स व रेटल सर्पों में प्रत्येक मैक्सिला पर एक बड़ा सक्रिय विषदन्त स्थित होता है। यह आधार भाग में सभी दिशाओं से एक आवरण द्वारा घिरा रहता है जिसके भीतर कुछ आरक्षी व विकासशील विष दन्त होते हैं। विष दन्त के इनेमल भाग में से होकर खोखली विष नलिका बढ़कर शीर्ष पर खुलती है। इस प्रकार के विष दन्त गतिशील होते है एवं मुख बन्द करने की स्थिति में मुख की छत के निकटत स्थापित हुए जाते हैं। इन्हें पाइप के समान खोखली संरचना वाले विष दन्त परिनालिकीय विषदन्ती सोलेनोग्लाइफस (solenoglyphous ) कहते है। कोबरा व क्रेट एवं कोरल सर्पों में विष दन्त अपेक्षाकृत छोटे होते है एवं स्थायी रूप से खड़े रहते है अर्थात् अगतिशील होते है। इन विष दन्तों की पूरी लम्बाई में शीर्ष तक स्कैच पाई जाती है, ये अप्रविषदन्ती या प्रोटेरोग्लाइफस (proteroglyphous ) विष दन्त कहलाते है। कॉल्युब्रिडी कुल के सर्पों में विषदन्त छोटे होते हैं। मेक्सिला अस्थि के पश्यतः संलग्न होते है तथा इनके पश्य सिरे पर खांच पाई जाती है। ये पश्यविषदन्ती या ऑफिस्थोग्लाइफस (opisthoglyphous ) विष दन्त कहलाते है।
दंश क्रिया या काटने की क्रियाविधि ( Biting mechanism )
विषैले सर्पों के कपाल व जबड़े की अस्थियां अत्यन्त प्रत्यास्थ होती है। ये ढीले अथवा गतिशील तरीके से संलग्न रहती हैं, अतः शिकार को काटने या निगलने के दौरान इनमें इसके समायोजन हेतु अनेक परिवर्तन होते हैं। कोबरा में विषदन्त स्थायी रूप से खड़े रहते हैं जबकि वाइपर में मुख के बन्द रहने की स्थिति में बड़े विष दन्त छत पर चिपके रहते है। सर्प द्वारा काटने की क्रिया के दौरान दो क्रियाएं की जाती है - 1 विषदन्तों का खड़ा होना 2. शिकार में विष का प्रवेश कराना। (चित्र 16.4)
1. विषदन्तों का उद्धर्षण (Erection of Fangs) वाइपर सर्प जब काटने की क्रिया करता है तो श्रृंखलाबद्ध अनेक क्रियाएं सम्पन्न होती है-विस्थूली या डाइगेस्ट्रिक पेशियों का सिकुड़ना, अतः जबड़ों का झुकना जिससे कि मुख खुल जाता है एवं क्वाड्रेट अस्थि का निचला सिरा बाहर धकेला जाता है। यह टेरीगॉइड अस्थि को आगे धकेलता है। इस क्रिया में स्फिनोटेरीगॉइड पेशियों के सिकुड़ने में भी सहायता मिलती है। इस प्रकार टेरीगॉइड अस्थि के बाहर निकलने से एक टोटेरिगॉइड ऊपर धकेली जाती है जिससे मेक्सिला अस्थि जिस पर कि विषदन्त लगा होता है 90० घूम जाती है। अतः विष दन्त उर्ध्वतः खड़ा हो जाता है जो कि सर्प द्वारा मार करने की प्रभावी अवस्था होती है।
2. शिकार में विष का प्रवेश कराना (Injection of poison in prey) इसी समय विष ग्रन्थि को आवरित करने वाली पेशियों में खिचाव होता है अतः इसमें विष रिस कर विष नलिका में बढ़ता है जो विषदन्त की खांच से होकर शीर्ष तक आता है एवं शिकार की देह में प्रवेश करा दिया जाता है। जब मुख बन्द किया जाता है तो टेम्पोरल पेशियों में संकुचन होता है, उपरोक्त सभी गतियां विपरीत विधि से होती है। विष दन्त जो शिकार की देह में गढ़ जाते है अब निकाले जाते है और विष दन्त घूम कर पुन: धरती के समानान्तर स्थिति में आ जाता है।
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